मैं बहुत ज्यादा तु तु मैं मैं के चक्कर में पडना नही चाहता ... एक तो हम महाराष्ट्र में पिटे फिर घर लौटकर अपने ही घर को तबाह कर दिया... रह गए जाहील के जाहील... गुस्सा कहीं दिखाना चाहिए था दिखा कहीं रहे हैं... खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे... पिटे मुंबई में और पिट रहे हैं बिहारीयों को... क्या तमाशा है... बिहार अपने ही लोगों के बेवकुफीयों की वजह से बदनाम है ... सब थू थू कर रहे हैं हमपर... राज ठाकरे का जो होना है वो तो अलग बात है पर जिस तरह से हम आवाज उठा रहे हैं वो क्या सही है ... और हमारे इसी करतुतों की वजह से कई बिहारी नेताओं को मौका भी मिल गया सियासत करने का... कोई ट्रेन के इंजन को लेकर भाग रहा है तो कोई ट्रेन की बौगी में ही आग लगा रहा है परेशानी किसे हो रही है आम जनता को वो जनता कई अरसे बाद अपने परिवार के साथ पर्व मनाना चाह रही है ... कौन जिम्मेवार है इसके लिए ... क्या नेता जी नही हम खुद अपनी बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं और बाद में रोते फिरेंगे अपनी हालत पर । जैसी है ठीक है ऐसे जाहीलों की हातल कौन सुधार सकता है कोई नही ...
मेरी बात तो बहुतों को बुरी लगेगी मगर क्या जो मैं कह रहा हुं वो गलत है ... बुरा लगे तो लगे पर हम खुद ही हर जगह से गाली सुनने का काम करते हैं ... लडाई लडने का जो तरीका है वो बिलकुल गलत है ...
ठीक ही सब हमें बिहारी या नाली के किडे कहते हैं... और ये नेता हैं पहले तो बडी बडी बातें कर रहे थे जी आपने ठीक समझा मैं लालू प्रसाद यादव के बारे में ही कह रहा हुं... पहले तो डिंगे हांक रहे थे की छठ मुंबई में मनाएंगे पर जब बारी आई तो डर के मारे बील में छुप गए कहां थे वो जब हम पिट रहे थे... किया तो कुछ भी नही मगर वोट लेने के वक्त पहुंच जाएंगे वोट मांगने... सब बडे नेता बनते हैं चाहे वो लालू हों या नितीश मगर समय पर सब के सब गायब।
मैं विनती करता हुं बिहारीयों जरा सोचों तुम क्या कर रहे हो... किसे तकलीफ पहुंचाया है तुमने खुद अपने ही लोगों को पवन की मौत का बदला गलत लोगों से ले बैठे यार ...
Friday, October 24, 2008
Saturday, October 18, 2008
डंके की चोट पर
आतंकवाद का नंगा नाच था या फिर कुछ और बात कुछ समझ में नही आई... आपको आई क्या... जामिया नगर में कई नेताओं का जुटान होता है ... भाषण भी होता है ... बडी बडी बातें की जाती है ... ऐसा लग रहा था सब के सब अचानक मुसलमानों के रहनुमा बन गए हैं... मुसलमानों की हालत को देखकर इनकी आंखें नम होने लगती हैं और आवाजें थरथराने लगती हैं... इससे पहले भी लगता है इन्होने मुसलमानों की खुब मदद करने की कोशीश की शायद इसिलिए आज एक भी मुसलमान इस देश में भुखा नही सोता है सबके बच्चे पढ लिखकर कहां से कहां पहुंच चुके हैं ... अरे रे चुनाव आने वाला है क्या ... अच्छा तो ये सब उसके लिए है ...
बताईये, वोट लेने की होड में शहीदों को भी नही बख्शा जा रहा है... अच्छा है शायद अब अमर सिंह की कुछ साख तो बनेगी। अर्रे भाई इससे क्या फर्क पडता है की उनकी मदद कौन कर रहा है मुसलमान या फिर... देखिए भाई मैने देखा है और जानता भी हुं कई राज्यों में तो नक्सलियों के बगैर मदद के सरकारें भी नही बनती... अब समाजवादी पार्टी एक नया ट्रेंड शुरु करने जा रही है मुसलमानों का वोट आतंकीयों के जरिए हासील करेगी... क्या फर्क पडता ।
बटला हाउस में शुक्रवार को जो हुआ वो क्या था... ये सिर्फ रैली थी क्या, जी नही... बिलकुल भी नही, ये तो ड्रामा था... इस ड्रामें की पटकथा अमर सिंह जैसे लोग लिख रहे हैं... इन्हे मिर्ची क्यों लग रही है... कहां थे ये लोग अबतक 1947 से लेकर अबतक इनही के जैसे लोगों नें कई बेगुनाहों को हिन्दु मुसलमान के नाम पर कटवाया है ... और बटला हाउस एनकाउंटर के बाद चुनावी मुद्दा इससे बढिया हो ही नही सकता था... अबतक हमलोग सिर्फ ये मानते थे की सरहद पार से ही इन आतंकीयों को मदद मिलती रही है मगर अब ये लगता है यहां के लडकों क वहां तक जाने की जरुरत ही नही है... इसी देश के लोग और इन्ही जैसे लोग इनके हाथों में AK-47 पकडवा रहे हैं... या फिर दुसरी बात ये हो सकती है की कहीं ये नेता का चोगा पहने हुए लोग पाकिस्तानी या बंगलादेशी एजेंट तो नही हैं... सरकार भी अंधी और बहरी ही है ऐसा भडकाउ भाषण देते हैं ये लोग लेकिन वोट बैंक की खातीर वो भी चुप ही रहती है।
मैं भी मुसलमान हुं... मगर मुझे अपने आपको मुसलमान साबीत करने के लिए ऐसे किसी भी दोगले शख्स की जरुरत नही जो मुझे मेरे ही भाईयों के खिलाफ भडकाए... बटला हाउस में एंकाउर होता है तो पहुंच जाते हैं घडियाली आंसू बहाने के लिए मगर उसी बटला हाउस और उसके आसपास के मुसलमान इलाके की स्थिती क्या है इन्हे दिखता ही नही है... दाढी बढाए हुए नकली मुल्लों की फौज तैयार करके लडकों को भडकाया जा रहा है ये किसी की नजर में क्यों नही आता... देश में कोई और मुद्दा नही है क्या... देश के कितने बच्चे ऐसे हैं जो भुखे सोते हैं ... देश में स्कूल नही जा पाते हैं ये बच्चे मगर इनकी गरीबी नही दीखती है इनसे मगर एक कोई कीसी शक पर गिरफतार हो जाए तो फिर देखिए सब के सब पहुंच जाते हैं झुंड बना कर और शायद ये कहते हुए की , चल चल वोट बट रहा है ... और इनहे आजकल बटला हाउस में हड्डी दिख रही है ... पुंछ हिलाए जा रहे हैं...
मैं हमेशा वनदे मातरम कहता हुं कहता रहुंगा ,,, जिससे जो बन पडे कर लेना .... जाओ
बताईये, वोट लेने की होड में शहीदों को भी नही बख्शा जा रहा है... अच्छा है शायद अब अमर सिंह की कुछ साख तो बनेगी। अर्रे भाई इससे क्या फर्क पडता है की उनकी मदद कौन कर रहा है मुसलमान या फिर... देखिए भाई मैने देखा है और जानता भी हुं कई राज्यों में तो नक्सलियों के बगैर मदद के सरकारें भी नही बनती... अब समाजवादी पार्टी एक नया ट्रेंड शुरु करने जा रही है मुसलमानों का वोट आतंकीयों के जरिए हासील करेगी... क्या फर्क पडता ।
बटला हाउस में शुक्रवार को जो हुआ वो क्या था... ये सिर्फ रैली थी क्या, जी नही... बिलकुल भी नही, ये तो ड्रामा था... इस ड्रामें की पटकथा अमर सिंह जैसे लोग लिख रहे हैं... इन्हे मिर्ची क्यों लग रही है... कहां थे ये लोग अबतक 1947 से लेकर अबतक इनही के जैसे लोगों नें कई बेगुनाहों को हिन्दु मुसलमान के नाम पर कटवाया है ... और बटला हाउस एनकाउंटर के बाद चुनावी मुद्दा इससे बढिया हो ही नही सकता था... अबतक हमलोग सिर्फ ये मानते थे की सरहद पार से ही इन आतंकीयों को मदद मिलती रही है मगर अब ये लगता है यहां के लडकों क वहां तक जाने की जरुरत ही नही है... इसी देश के लोग और इन्ही जैसे लोग इनके हाथों में AK-47 पकडवा रहे हैं... या फिर दुसरी बात ये हो सकती है की कहीं ये नेता का चोगा पहने हुए लोग पाकिस्तानी या बंगलादेशी एजेंट तो नही हैं... सरकार भी अंधी और बहरी ही है ऐसा भडकाउ भाषण देते हैं ये लोग लेकिन वोट बैंक की खातीर वो भी चुप ही रहती है।
मैं भी मुसलमान हुं... मगर मुझे अपने आपको मुसलमान साबीत करने के लिए ऐसे किसी भी दोगले शख्स की जरुरत नही जो मुझे मेरे ही भाईयों के खिलाफ भडकाए... बटला हाउस में एंकाउर होता है तो पहुंच जाते हैं घडियाली आंसू बहाने के लिए मगर उसी बटला हाउस और उसके आसपास के मुसलमान इलाके की स्थिती क्या है इन्हे दिखता ही नही है... दाढी बढाए हुए नकली मुल्लों की फौज तैयार करके लडकों को भडकाया जा रहा है ये किसी की नजर में क्यों नही आता... देश में कोई और मुद्दा नही है क्या... देश के कितने बच्चे ऐसे हैं जो भुखे सोते हैं ... देश में स्कूल नही जा पाते हैं ये बच्चे मगर इनकी गरीबी नही दीखती है इनसे मगर एक कोई कीसी शक पर गिरफतार हो जाए तो फिर देखिए सब के सब पहुंच जाते हैं झुंड बना कर और शायद ये कहते हुए की , चल चल वोट बट रहा है ... और इनहे आजकल बटला हाउस में हड्डी दिख रही है ... पुंछ हिलाए जा रहे हैं...
मैं हमेशा वनदे मातरम कहता हुं कहता रहुंगा ,,, जिससे जो बन पडे कर लेना .... जाओ
Wednesday, September 24, 2008
घर बचाओ भाई... सियासत मत करो
बात चाहे जो हो हमारी देश की एजेंसीयां जांच कर रही हैं... मगर जामीया मिलीया यूनिवर्सिटी के कुलपति ऐसा नही चाहते हैं... किसे बचाने की कोशीश कर रहे हैं वो क्यो वो ये चाहते हैं इस देश की जमीन पडोसी मुल्क के इशारे पर लाल होती रहे... हम जैसे लोग मरते रहें... मैं ये नही कहता की सारे गलत हैं मगर जामिया नगर का उस इलाके में ऐसे मंसूबे पालने वाले और लडकों को भडकाने वालों की कमी नही है... मुस्लमान लडके वहां कमरा लेकर पढते हैं कमरा सस्ता मिल जाता है खाने पिने का सामान सस्ता मिलता है शायद यही वजह है देश के कोने कोने से आने वाले छात्र इस तरह के इलाकों को चुनते हैं मगर ऐसे लडकों की तालाश में आखें फाडे इन आतेकीयो के दलाल ऐसे लडको के सामने चारा फेंकते हैं और फंसा लेते हैं...
अब आज ही की बात ले लिजिए हमारे एक सहयोगी जामिया गए थे कुलपति का इंटरवियू करने मगर उन्हे मां बहन की गाली सूनकर वापस लौटना पडा... और गांलीयां देने वाले यबनिवर्सिटी के छात्र ही थे.. सिर्फ यही नही ... एन्काउंटर वाले दिन भी पत्रकारों के साथ जो हुआ वो ठीक नही था... उधर गोलियां चल रही थी और इधर पत्रकार गालीया सुन रहे थे... एक पुलिस वाला मारा गया मगर एक भी ऐसा शख्स नही था जिन्होने दिल्ली में होने वोले आतकी हमले के खिलाफ कुछ बोला हो... बल्कि आज क्या हो रहा है पुलिस पर ही लोग आरोप लगा रहे हैं... छी छी ... ये कैसे लोग हैं ये कौन लोग हैं जो इस देश की मिट्टी में जन्म लेने के बाद भी पडोसी मुल्क का ही गुनगान करते हैं...
सरकार भी सोई हुई है... सबकुछ जानते हुए भी चुपचाप तमाशा देख रही है... कोई पॉलिसी ही नही है... अमरीका जिससे हाथ मिलाने को सरकार बेचैन है उससे ही सबक सिखे... वर्लड ट्रेड सेन्टर पर हमले के बाद अमरिका ने रातो रात अफगानिस्तान पर हमला कर दिया मगर हम पता नही क्यों चुप हैं... इस देश में एक आंदोलन की सख्त जरुरत है और इसकी शुरुआत जल्द ही शुरु करनी चाहीए... क्योंकि लडाई अगर अब नही शुरु हुआ तो फीर कभी नही शुरु हो पाएगा... और इसमें हम सबको चाहे वो हिंदु हो , मुस्लमान हो कोई भी हो साथ में हाथ मिलाकर आगे बढे... अपने घर को बचाएं
अब आज ही की बात ले लिजिए हमारे एक सहयोगी जामिया गए थे कुलपति का इंटरवियू करने मगर उन्हे मां बहन की गाली सूनकर वापस लौटना पडा... और गांलीयां देने वाले यबनिवर्सिटी के छात्र ही थे.. सिर्फ यही नही ... एन्काउंटर वाले दिन भी पत्रकारों के साथ जो हुआ वो ठीक नही था... उधर गोलियां चल रही थी और इधर पत्रकार गालीया सुन रहे थे... एक पुलिस वाला मारा गया मगर एक भी ऐसा शख्स नही था जिन्होने दिल्ली में होने वोले आतकी हमले के खिलाफ कुछ बोला हो... बल्कि आज क्या हो रहा है पुलिस पर ही लोग आरोप लगा रहे हैं... छी छी ... ये कैसे लोग हैं ये कौन लोग हैं जो इस देश की मिट्टी में जन्म लेने के बाद भी पडोसी मुल्क का ही गुनगान करते हैं...
सरकार भी सोई हुई है... सबकुछ जानते हुए भी चुपचाप तमाशा देख रही है... कोई पॉलिसी ही नही है... अमरीका जिससे हाथ मिलाने को सरकार बेचैन है उससे ही सबक सिखे... वर्लड ट्रेड सेन्टर पर हमले के बाद अमरिका ने रातो रात अफगानिस्तान पर हमला कर दिया मगर हम पता नही क्यों चुप हैं... इस देश में एक आंदोलन की सख्त जरुरत है और इसकी शुरुआत जल्द ही शुरु करनी चाहीए... क्योंकि लडाई अगर अब नही शुरु हुआ तो फीर कभी नही शुरु हो पाएगा... और इसमें हम सबको चाहे वो हिंदु हो , मुस्लमान हो कोई भी हो साथ में हाथ मिलाकर आगे बढे... अपने घर को बचाएं
Saturday, August 30, 2008
मौत या बेमौत
सरकार की व्यवस्था कैसी है आप खुद ही देख सकते हैं और अंदाजा लगा सकते है... क्या सरकारी तंत्र इस बार बिहार में इतना ज्यादा बेखबर हो गया था उसे इस खतरे का अंदेशा तक नही हुआ...
Saturday, August 23, 2008
जीयो और जीने दो
{मुझे नही पता इस लेख को पढने के बाद आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी मगर मेरे उपर इसका इतना गहरा असर पडा है । आज कोई भी मेरा नाम पुछता है तो मुझे अपना नाम बताने तक में संकोच होता है }
अचानक ही बात निकल पडी... दोस्तों ने धर्मनिर्पेक्षता पर बात छेड दी थी। मैं चुपचाप सुनता रहा , उनका कहना था अलगाव की राजनीत से ही लोग प्रभावीत होते आए हैं जिसकी वजह एक वर्ग ऐसा है जो हर चीजों को धर्म के नाम पर ही तैलता हैं मैने बहुत ज्यादा कुछ नही कहा सिर्फ सुनता रहा। मैं खुद भुक्तभोगी रह चुका हुं खैर बात बीच मे ही रुक गई और हम सब अपने अपने दफतर लौट आए। शाम की बुलेटीन के लिए तैयारी करनी थी मगर दिन को हुई बाते मेरे दिमाग में बार बार कौंध रही थी और उन दिनों की बातें याद आ गई जब मेरा तबादला पटना से दिल्ली कर दिया गया था । मकान की समस्या काफी अहम थी इसिलिए दिल्ली पहुंचते ही मैने मकान खोजना शुरु कर दिया... मकान मालीक भी मकान बडे प्यार से दिखाते मगर मेरे बारे में जानकारी मिलने के बाद उनका स्वाद ही बिगड जाता था । मैं पत्रकार आदमी इस बात को शुरु में पकड नही पाया की मामला क्या है । मैने अपने एजेंट से इस बारे में जब पुछताछ की तो पता चला की मेरा मुसलमान परिवार में जन्म लेना इन लोगों को नागवार गुजर गया है , मेरे भारतीय होने से इन्हे कोई फर्क नही पडता । खैर, मेरे एक मित्र विक्रम को जब मेरे इस हालत के बारे में पता चला तो उसने अपना नया एक कमरे का मकान मुझे किराए पर दे डाला । मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और सामान लेकर उसके मकान में पहुंच गया । गर्मी के दिन थे और उपरी मंजील का मकान , अब मकान चुंकी नया था इसिलिए बिजली का कनेक्शन भी नही आया था आप ही सेचीए मेरी क्या हालत हुई होगी। खैर मैं उस मकान में रहने लगा मगर सोता ऑफिस में ही था क्योंकि दिल्ली की गर्मी तो आपको पता ही है । बिस्तर पर पानी छीडक कर सोने की कोशीश करता था मगर गर्मी के कारण सुबह तक आंखे खुली ही रहती थी । देर शाम तक की शिफ्ट भी मैं करने लगा । मेरी हालत खराब होती जा रही थी मगर कोई भी मकान देने को तैयार नही हुआ । दिन प्रतिदिन मेरी सोंच मझे धोखा दे रही थी । पहले मैं ये सोचता था कम से कम इस देश में तो लोग एक दुसरे से इतनी घृणा नही करते होंगे पर यहां आकर पता चला की आप चाहे कितने बडे देश प्रेमी क्यों न हों मगर जब बात धर्म की आती है तो कोई किसी का नही ।
मेरे दोस्त जो मुझे मकान दिलाने में मेरी मदद कर रहे थे उन्हे भी शर्म आने लगी थी मगर वो भी बेचारे लाचार थे । बाद में आखीरकार मुझे एक बैंक अधिकारी जो अपने आपको मेरे ही धर्म का होने का दावा करता था उसने नोएडा में अपना मकान दिया।
मेरे साथ ऐसा हुआ क्यों , इसका सबसे बडा कारण है इस देश में चल रही राजनिती। शुरु से ही हम देखते आ रहे 1947 के बाद से ही अलगाव की राजनीत शुरु हो गई थी । हमसब भारतीय तो हैं मगर धर्म और जात के नाम पर बटे हुए हैं और वोट भी हम उसी आधार पर देते आए हैं । अब देखिए मुस्लमानों में भी जाती के नाम पर राजनीत शुरु हो चुकी है । अपना उल्लु सिधा करने के लिए पसमंदा मुस्लिम महाज के नाम पर कुछ मुस्लिम नेता राजनीत कर रहे हैं यानी सिधे तौर पर लडवाने की राजनीत ।
अयोधया के मामले में भी हमने देखा की क्या हुआ । बाबरी मस्जिद में बाबर के मरने के बाद किसी ने शायद ही किसी ने नमाज पढा होगा मगर कुछ नेताओं के चक्कर में कितने मासुम मारे गए । धमाके जब होते हैं तो सिर्फ इंसान मरते हैं, खुद सोंच कर देखिए की कैसे कैसे लोग मारे गए । देश का कोई भी हिस्सा हो, इस बीमारी से अछुता नही है ।
सीमी जैसे संगठन के बारे कौन नही जानता मगर सरकार में दो वरीष्ठ मंत्री ये मानते है की इस संगठन का आतंकवाद से कोई लेना देना ही नही है । अफजल गुरु का हश्र क्या होना चाहिए था ये तो कोई बच्चा भी बता देगा मगर हम उसे भी पाल रहे हैं । आप मरते रहिए मगर सरकार पडोसीयों के दुशमनी के जवाब में सिर्फ कसीदे ही पढेती रहेगी । और इन सब के चक्कर में लोगों के गुस्से का शिकार होना पडता है हम जैसे लोगों को जिसके लिए देश से बडा कुछ भी नही शायद धर्म भी नही।
अचानक ही बात निकल पडी... दोस्तों ने धर्मनिर्पेक्षता पर बात छेड दी थी। मैं चुपचाप सुनता रहा , उनका कहना था अलगाव की राजनीत से ही लोग प्रभावीत होते आए हैं जिसकी वजह एक वर्ग ऐसा है जो हर चीजों को धर्म के नाम पर ही तैलता हैं मैने बहुत ज्यादा कुछ नही कहा सिर्फ सुनता रहा। मैं खुद भुक्तभोगी रह चुका हुं खैर बात बीच मे ही रुक गई और हम सब अपने अपने दफतर लौट आए। शाम की बुलेटीन के लिए तैयारी करनी थी मगर दिन को हुई बाते मेरे दिमाग में बार बार कौंध रही थी और उन दिनों की बातें याद आ गई जब मेरा तबादला पटना से दिल्ली कर दिया गया था । मकान की समस्या काफी अहम थी इसिलिए दिल्ली पहुंचते ही मैने मकान खोजना शुरु कर दिया... मकान मालीक भी मकान बडे प्यार से दिखाते मगर मेरे बारे में जानकारी मिलने के बाद उनका स्वाद ही बिगड जाता था । मैं पत्रकार आदमी इस बात को शुरु में पकड नही पाया की मामला क्या है । मैने अपने एजेंट से इस बारे में जब पुछताछ की तो पता चला की मेरा मुसलमान परिवार में जन्म लेना इन लोगों को नागवार गुजर गया है , मेरे भारतीय होने से इन्हे कोई फर्क नही पडता । खैर, मेरे एक मित्र विक्रम को जब मेरे इस हालत के बारे में पता चला तो उसने अपना नया एक कमरे का मकान मुझे किराए पर दे डाला । मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और सामान लेकर उसके मकान में पहुंच गया । गर्मी के दिन थे और उपरी मंजील का मकान , अब मकान चुंकी नया था इसिलिए बिजली का कनेक्शन भी नही आया था आप ही सेचीए मेरी क्या हालत हुई होगी। खैर मैं उस मकान में रहने लगा मगर सोता ऑफिस में ही था क्योंकि दिल्ली की गर्मी तो आपको पता ही है । बिस्तर पर पानी छीडक कर सोने की कोशीश करता था मगर गर्मी के कारण सुबह तक आंखे खुली ही रहती थी । देर शाम तक की शिफ्ट भी मैं करने लगा । मेरी हालत खराब होती जा रही थी मगर कोई भी मकान देने को तैयार नही हुआ । दिन प्रतिदिन मेरी सोंच मझे धोखा दे रही थी । पहले मैं ये सोचता था कम से कम इस देश में तो लोग एक दुसरे से इतनी घृणा नही करते होंगे पर यहां आकर पता चला की आप चाहे कितने बडे देश प्रेमी क्यों न हों मगर जब बात धर्म की आती है तो कोई किसी का नही ।
मेरे दोस्त जो मुझे मकान दिलाने में मेरी मदद कर रहे थे उन्हे भी शर्म आने लगी थी मगर वो भी बेचारे लाचार थे । बाद में आखीरकार मुझे एक बैंक अधिकारी जो अपने आपको मेरे ही धर्म का होने का दावा करता था उसने नोएडा में अपना मकान दिया।
मेरे साथ ऐसा हुआ क्यों , इसका सबसे बडा कारण है इस देश में चल रही राजनिती। शुरु से ही हम देखते आ रहे 1947 के बाद से ही अलगाव की राजनीत शुरु हो गई थी । हमसब भारतीय तो हैं मगर धर्म और जात के नाम पर बटे हुए हैं और वोट भी हम उसी आधार पर देते आए हैं । अब देखिए मुस्लमानों में भी जाती के नाम पर राजनीत शुरु हो चुकी है । अपना उल्लु सिधा करने के लिए पसमंदा मुस्लिम महाज के नाम पर कुछ मुस्लिम नेता राजनीत कर रहे हैं यानी सिधे तौर पर लडवाने की राजनीत ।
अयोधया के मामले में भी हमने देखा की क्या हुआ । बाबरी मस्जिद में बाबर के मरने के बाद किसी ने शायद ही किसी ने नमाज पढा होगा मगर कुछ नेताओं के चक्कर में कितने मासुम मारे गए । धमाके जब होते हैं तो सिर्फ इंसान मरते हैं, खुद सोंच कर देखिए की कैसे कैसे लोग मारे गए । देश का कोई भी हिस्सा हो, इस बीमारी से अछुता नही है ।
सीमी जैसे संगठन के बारे कौन नही जानता मगर सरकार में दो वरीष्ठ मंत्री ये मानते है की इस संगठन का आतंकवाद से कोई लेना देना ही नही है । अफजल गुरु का हश्र क्या होना चाहिए था ये तो कोई बच्चा भी बता देगा मगर हम उसे भी पाल रहे हैं । आप मरते रहिए मगर सरकार पडोसीयों के दुशमनी के जवाब में सिर्फ कसीदे ही पढेती रहेगी । और इन सब के चक्कर में लोगों के गुस्से का शिकार होना पडता है हम जैसे लोगों को जिसके लिए देश से बडा कुछ भी नही शायद धर्म भी नही।
Saturday, August 2, 2008
सूषमा मैडम की राजनीत....
खैर चलिए छोडिए, उमा भारती को... उनकी नाराजगी जायज भी है आखीर सबने उन्हे छोड दिया है ... समझा किजिए भाई लेकिन भाई ये सुषमा स्वराज को क्या हो गया है... जनता हैरान... नेता हैरान और एनडीए परेशान... उन्हे भी मुंह की खानी पडी... मेरे पिता अक्सर कहा करते हैं की देखने में दिमाग से तेज लगना और वाकई में तेज होना दो अलग बाते हैं... अगर वो चुप ही रहती तो लोग उन्हे तेज नेताओं की गिनती में ही रखते मुंह जो खोला सारे पोल खुल गए... ना ना ये मैं नहीं कह रहा हुं ये तो खुद उनकी एनडीए कह रही है भाई... मिडिया को क्या लेना देना हम तो वही दिखाते हैं जो होता है... नारायण नारायण....सूषमा जी एक काम किजिए कुछ दिनों के लिए किसी से टयूशन ले लिजिए शायद सोनीया गांधी ठीक रहेंगी आपको पढाने के लिए... या फिर अमर सिंह भी तो बुरे नहीं हैं... अरे आपतो नाराज हो गई मैडम मैं तो बस एक नागरीक के तौर पर आपको सुझाव दे रहा था आप तो नाराज हो गईं... खैर आपकी मर्जी... अरे हां एक बात तो बताना भुल ही गया शायद आपका नाम कानपुर सीट के लिए तय कर दिया गया है और अब श्री प्रकाश जयसवाल आपके खिलाफ चुनाव लडने में शर्म महसुस कर रहे हैं... खैर आप लोग आपस में समझ लिजिएगा... हम वहीं कहीं कोने में अपने कैमरे लेकर मौजुद रहेंगे...
लालच बुरी बला...
1 अगस्त को इस देश ने उमा भारती की करतुत भी देखी... सबकुछ टीवी पर था.. एक सीडी जिसमें एक व्यक्ति बीजेपी सांसदों के घरों में एक भारी बैग लेकर जा रहा है... बाद में ये दावा किया गया की बीजेपी ने 22 जुलाई को संसद में नोटों को लहराने की झुटी साजीश रची थी... हमे भी लगा की ये क्या हो गया... लेकिन बाद में जब उस सीडी पर गौर किया गया तो सवाल उठाने वाली उमा भारती खुद शक के घेरे में आ गई... वो सीडी दरअसल कांड होने के बाद में फिल्माया गया था क्योंकि संसद में जब नोटों को लहराया गया उसके बाद अशोक अर्गल के घर के बाहर बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने 23 जुलाई को एक होर्डिंग लगवाई थी जिसमें इस कांड को उजागर करने की बधाई दी गई थी... यहीं पर आकर उमा भारती की फिल्म मार खा गई और जनता में पहुंचने से पहले बॉक्स ऑफिस में ही पिट गई... उसके बाद बीजेपी को मौका मिल गया उमा को लथाडने का जमकर लथाडा लेकिन फिर बाद में शायद दया दिखाते हुए छोड दिया... वो भी समझते उनकी छटपटाहट को... कॉंग्रेस की तरह सत्ता की भुख से वो भी वाकीफ हैं... बहरहाल, जनता भी बहुत मजा ले रही है किसी भी एन्टरटेनमेंट प्रोग्राम से कम थोडे ही है आजकल जो भी हो रहा है सत्ता के गलियारे में .... मजा लिजिए ऐश किजिए...
Thursday, July 31, 2008
दिन दहाडे लुट... कोई सुनवाई नही
Salary & Govt. Concessions for a Member of Parliament (MP)
Monthly Salary : 12,000Expense for Constitution per month : 10,000Office expenditure per month : 14,000Traveling concession (Rs. 8 per km) : 48,000 ( eg.For a visit from kerala to Delhi & return: 6000 km)Daily DA TA during parliament meets : 500/day
Charge for 1 class (A/C) in train: Free (For any number of times) (All over India )
Charge for Business Class in flights : Free for 40 trips / year (With wife or P.A.)
Rent for MP hostel at Delhi : Free
Electricity costs at home : Free up to 50,000 units
Local phone call charge : Free up to 1 ,70,000 calls.
TOTAL expense for a MP [having no qualification] per year : 32,00,000 [i.e. 2.66 lakh/month]
TOTAL expense for 5 years : 1,60,00,000 For 534 MPs, the expense for 5 years : 8,54,40,00,000 (nearly 855 crores)
AND THE PRIME MINISTER IS ASKING THE HIGHLY QUALIFIED, OUT PERFORMING CEOs TO CUT DOWN THEIR SALARIES.....
ये ही है सच्चाई और देखिए हमारी गाढी कमाई के पैसे कैसे और कहां इस्तमाल किए जाते हैं... लुटाइए अपने पैसे को...मामला 855 करोड का है... यही है हमारा महान सा दिखने वाला लोकतंत्र
Monthly Salary : 12,000Expense for Constitution per month : 10,000Office expenditure per month : 14,000Traveling concession (Rs. 8 per km) : 48,000 ( eg.For a visit from kerala to Delhi & return: 6000 km)Daily DA TA during parliament meets : 500/day
Charge for 1 class (A/C) in train: Free (For any number of times) (All over India )
Charge for Business Class in flights : Free for 40 trips / year (With wife or P.A.)
Rent for MP hostel at Delhi : Free
Electricity costs at home : Free up to 50,000 units
Local phone call charge : Free up to 1 ,70,000 calls.
TOTAL expense for a MP [having no qualification] per year : 32,00,000 [i.e. 2.66 lakh/month]
TOTAL expense for 5 years : 1,60,00,000 For 534 MPs, the expense for 5 years : 8,54,40,00,000 (nearly 855 crores)
AND THE PRIME MINISTER IS ASKING THE HIGHLY QUALIFIED, OUT PERFORMING CEOs TO CUT DOWN THEIR SALARIES.....
ये ही है सच्चाई और देखिए हमारी गाढी कमाई के पैसे कैसे और कहां इस्तमाल किए जाते हैं... लुटाइए अपने पैसे को...मामला 855 करोड का है... यही है हमारा महान सा दिखने वाला लोकतंत्र
Wednesday, July 30, 2008
नाली के कीडे
चुंकी मै टीवी पत्रकार हुं... इसिलिए आज मैं सेतु समुद्रम के कवरेज के लिए सूप्रिम कोर्ट पहुंच गया... काफी इंतजार के बाद याचिकाकर्ता सूब्रह्मण्यम स्वामी कैमरे के सामने आए और सेतु समुद्रम के मामले पर लगे भाषण देने... हम मिडिया वाले उनकी बाईट मिलने के बाद सोंच रहे थे चलो आज की नौकरी यहीं खत्म... बाईट मिल गई अब वापस चलते हैं ऑफिस में ऐसी की ठंडी हवा खाएंगे... मगर हमें क्या पता था की सूब्रह्मण्यम स्वामी को वहीं खडे एक आम आदमी का सामना करना पडेगा... एक बुढा सिक्ख वहीं खडा था उनकी बाते बडे धयान से सुन रहा था... उनकी बातें खत्म हुई ही थी उस बुढे व्यक्ति नें उन्हे रोक कर अपनी वय्था सुनाने की कोशीश की मगर इन नेताओं को सिर्फ कैमरे से प्रेम है... चलते बने आगे आगे सूब्रह्मण्यम स्वामी और पिछे पिछे वो आम बुढा हिन्दुस्तानी अपनी बात बोलने की कोशीशों मे लगा रहा... हम भी खडे होकर तमाशा देखते रहे मगर सूब्रह्मण्यम स्वामी ने इसपर कोई खास तवज्जो नही दिया और चले गए... वो वयक्ति रोता बिलख्ता चिल्लाता रहा... वो लगातार ये कह रहा था की " उसने कई बार नेताओं से अपनी परेशानी बताने की कोशीश की मगर उसकी बातों को सुनने का कीसी को फूर्सत नही" जाहीर सी बात कौन सुने इस आम हिन्दुस्तानी की बात... उसकी जरुरत तो इनको सिर्फ चुनाव के समय में ही पडती है... अन्त में वो इतना बौखला गया था की की उसने प्रधानमंत्री निवास के सामने बम धमाकों की चेतावनी भी दे डाली... अब आप ही बताईए इस आम आदमी की औकात क्या है जो सूब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नेता के सामने खडा हो जाए... होगी कोई परेशानी... कीसे है इस की फिक्र... बेवकुफ आदमी चुनाव फिर आ रहा है...और यही नेता तेरे सामने भीख मांगेगे और तुम नाली के कीडे इन्हे ही वोट दोगे... और हम मिडिया वाले तुम्हारे पास तब पहुंचेंगे जब तुम तडप तडप कर मर जाओगे तब तुम्हारी लाश से पुछेंगे की इसके पिछे दोषी कौन है...
Tuesday, July 29, 2008
बीजेपी की छटपटाहट
सूषमा स्वाराज का नाम देश की गीनती बडी नेत्रीयों में हाती आई है मगर पिछले दिनों ऐसी बात कह दी जो खुद अपनी सहयोगी एनडीऐ को भी नागवार गुजर गई यहां तक की उनकी पार्टी बीजेपी की भी उनके द्वारा दिए गए बयान की वजह से काफी पजीहत हो रही है और कोई इस मुद्दे पर बोलने को तैयार नही है... उन्होने सरे आम दो शासीत राज्यों हुए आतंकी धमाकों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सर पर फोडना शुरु कर दिया...
ये बात सबको नागवार गुजरी और सबने उनके इस बयान का विपोध कीया यहां तक की एनडीऐ ने भी इसका विरोध किया... ऐसी बयानबाजी से लोगों को लगने लगा है की बीजेपी काफी बेबस हो गई है और छटपटाहट में ऐसी बाते कर रही हैं... खैर अब तो उन्हे जो कहना था कह दिया मगर चुनाव की तैयारीयों में जुटी बीजेपी अब इसे रोकने के लिए क्या करेगी ये खुद बीजेपी भी समझ में नही आ रहा है...
Saturday, July 26, 2008
हल्ला बोल
पूरी दुनिया ने देखा होगा कीस तरह से पैसे लहराए गए संसद में... वैसे तो इस जगह को पाक समझा जाता है मगर सच्चाई क्या है ये हमें पता है... फिर भी हम चुप हैं क्यों... क्योंकि आप और हम नपुंसक हो चुके है... आवाज उठा नही सकते क्योंकि इसी संसद में कई क्रिमिनल भी बैठे हैं... महात्मा गांधी अगर आज होते क्या करते... शायद खुदकुशी कर लेते...
लोकतंत्र के नाम पर रोज ये नेता हमें नसीहत देते हैं... मैं तो समझ क्या लोकतंत्र का सच मगर आपके और हमारे बच्चे इसे किस रुप में लेते हैं ये भी समझ लिजिए... कल अगर आपका बच्चा कुछ ऐसी हरकत करता है और पुछे जाने पर इनका हवाला देता है तो चौंकिएगा मत क्योंकि ऐसे लोगों को हमने ही तो देश की तकदीर तय करने के लिए भेजा है... परमाणु डिल के मुद्दे पर हम अमरीका के साथ जबरन जाने को मजबुर हैं क्योंकि सरकार नें विश्वासमत हासील कर लिया... भिखारी तो हमसब पहले से ही बन चुके हैं वर्लड बैंक के सामने अब शक्ति जो की हमने काफी मेहनत के बाद हासील की है वो अमरीका के सामने गिरवी है...
अरे भाईसाहब अमरनाथ, बाबरी मस्जीद मामला तो हम बैठ के सुलझा लेगें क्योंकि ये हमारा अंदरुनी मसला है, घर का मामला है मगर परमाणु डिल के लिए कुछ किजिए... नही तो आने वाला कल कैसा होगा आप भी जानते है और अगर नही जानते हैं तो अबतक जान लेना चीहिए.
Tuesday, July 8, 2008
देश की सबसे बडी तलाक
आज तलाक हो गया... यूपिए वामपंथ का तलाक काफी दिनों से चल रहे मतभेद के बाद आज समाप्त हो गया... वामपंथी चल दिए अपने राह पर और यूपिए को भी नया पती मिल ही गया मगर क्या ये शादी भी चल पाएगी... ये भी जल्द ही पता चल जाएगा जब बारातीयों की गिन्ती होगी इस देश के सबसे बडे बारात घर में यानी की संसद में... सामाजवादी पार्टी बतौर पती यूपिए को कितना खुश रख पाता है ये तो उसके बाद ही पता चलेगा ... फिलहाल बिजेपी को इस शादी के टुटने का इंतजार है लेकिन वो जानती है की ये शादी भी कुछ महिने चल ही जाएगी... क्योंकि पतिदेव को दहेज में काफी कुछ चाहिए और यूपिए को या तो वो देना पडेगा या फिर दुसरी शादी के लिए आवेदन देना होगा वैसे भी 6 महिने बाद चुनाव आ जाएगा और हमें दुसरी बारात में शामील होना होगा...
Monday, July 7, 2008
जरा सोचिए
परमाणु करार विवाद वामपंथीयों के लिए एक बुरे सपने की तरह है... वो न तो इसे निगल ही पा रहे हैं और न ही उगल ही पा रहे हैं.... अब जैसे की सोमवार की शाम वाम के खेमें से ये बात निकल कर आई की मंगलवार की दोपहर तक वो समर्थन वापस ले सकते हैं... कारण प्रधानमंत्री के आईएईआई में जाने वाली घोषणा ही समझा जा रहा है जो की उन्होने जापान के लिए कुच करने से पहले की... प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान के लिए रवाना हो चुके... इधर भाजपा के हलकों में सोमवार को दिनभर ये बाते होती रही की आडवाणी ने वाम नेता प्रकाश करात को एक दुत के जरिए ये कहलवा भेजा है की जल्द से जल्द परमाणु विवाद पर कोई फैसला ले लें... इसी बीच सोमवार को ही भाजपा के सबसे छोटे नेता ( प्रवक्ता) राजीव प्रताप रुढी ने यूपिए के चार वर्षों का रिपोर्ट कार्ड जारी कर दिया ... और सामाजवादी पार्टी महासचीव अमर सिंह को भी खरी खोटी सुनाई... बहरहाल ये सारी घटनाएं एक ही दिन की है... जैसे की प्रधानमंत्री का जापान जाना ... जापान जाने से पहले बयान देना... बिजेपी में दुत वाली खबर, रिपोर्ट कार्ड जारी होना और शाम तक समर्थन वापसी की खबर... ये कोई इत्तेफाक नही हो सकता... क्या सरकार जा रही है या फिर वामपंथी को मुंह की खानी पडेगी... जरा सोचीए
Sunday, July 6, 2008
क्या हम अंधे हैं या फिर बेवकुफ
क्या हम सब पडोसीयों के बहकावे में हमेशा ही अपनों को खोते रहेंगे... पाकिस्तानी जेलों में अबतक कई ऐसे बेकसूर बंद है जिनका हमारे पास कोई लेखा जोखा नही... 1947 से वो हमारे साथ जंग छेडे हुए है और जबभी हम अपनी आवाज बुलंद करने की कोशीश करते है तो वो दोस्ती का ढोंग करते हैं और पहले मौका मिलते ही आस्तीन में छीपे सांप की तरह हमें डसते है... और बेचारे बदनाम होतें हैं इस देश के मुस्लमान जिनको इनसे कोई मतलब नही है... बम धमाकों में कई मुस्लमान भी मारे गए इन पाकिस्तानीयों के चक्कर में... हम सब को मिलकर कुछ करना होगा इस्से पहले की हम अपने आपको पुरी करह से खो दें...
वन्दे मातरम् के भोजपुरी अनुवाद
आखीर मुस्लमानों को वन्दे मातरम् बोलने में ऐतराज क्या है ?
वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् सुजलां सुफलां मलयज-शीतलाम् शस्य-श्यामलाम् मातरम् वन्दे मातरम् शुभ्र-ज्योत्सना पुलकित यामिनीं फूलकुसुमति द्रुमदल शोभिनीं सुहासिनीं सुमधुर भाषिनीं सुखदां वरदां मातरम् वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् -बंकिमचन्द चट्टोपाध्याय भोजपुरी अनुवादः- वन्दन हे माई वन्दन हे माई जीवनजल-अमृतफल आँचल पर्वत पवन सुगंधित शीतल लहसल खेत भरल माई वन्दन हे माई धवल अंजोरिया फूलकल राति वन-उपवन शोभे फूलि भाँति हँसमुखी मिसरी वाणी सुखदायी वरदायी माई वन्दन हे माई वन्दन हे माई (भोजपुरी अनुवादः- राजनन्दन) हांगजाऊ चीन
वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् सुजलां सुफलां मलयज-शीतलाम् शस्य-श्यामलाम् मातरम् वन्दे मातरम् शुभ्र-ज्योत्सना पुलकित यामिनीं फूलकुसुमति द्रुमदल शोभिनीं सुहासिनीं सुमधुर भाषिनीं सुखदां वरदां मातरम् वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् -बंकिमचन्द चट्टोपाध्याय भोजपुरी अनुवादः- वन्दन हे माई वन्दन हे माई जीवनजल-अमृतफल आँचल पर्वत पवन सुगंधित शीतल लहसल खेत भरल माई वन्दन हे माई धवल अंजोरिया फूलकल राति वन-उपवन शोभे फूलि भाँति हँसमुखी मिसरी वाणी सुखदायी वरदायी माई वन्दन हे माई वन्दन हे माई (भोजपुरी अनुवादः- राजनन्दन) हांगजाऊ चीन
वामपंथी-इस्लामवादी गठजोड
नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत अनेक प्रकार के विचार सामने आने लगे हैं। भारत में इस विषय पर विभिन्न समाचार पत्रों में जो लेख या सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं उससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि नेपाल में माओवादियों की विजय को दो सन्दर्भों में देखा गया हैं। एक विचार के अनुसार नेपाल में माओवादियों की विजय का लाभ उठाकर भारत में वामपंथी उग्रवादियों नक्सलवादियों या फिर माओवादियों को भी मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास करने चाहिये। अनेक बडे समाचार पत्रों ने अपनी सम्पादकीय और लेखों के द्वारा सरकार को सलाह दी है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से एक स्वर्णिम अवसर भारत को मिला है कि वह भारत में नक्सलियों को लोकतंत्र का मार्ग अपनाने को प्रेरित करे। इसके अतिरिक्त नेपाल में माओवादियों की विजय को लेकर एक दूसरी विचारधारा भी है जो मानती है कि अब नेपाल भारत की सुरक्षा की दृष्टि से एक बडा खतरा बन जायेगा और भारत का हित इसी में है कि नेपाल में माओवादी हिंसा को नष्ट करने की दिशा में भारत प्रयास जारी रखे और बदली परिस्थितियों में भी राजा को नेपाल में प्रासंगिक बना कर रखे। इन दोनों ही विचारों में से कौन सा विचार आने वाले समय में प्रभावी होने वाला है यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
हमारे लेख का विषय यह है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत की सुरक्षा पर दीर्घगामी स्तर पर क्या प्रभाव पडने वाला है। अभी हाल के अपने अंक में प्रसिद्ध पत्रिका तहलका ने भारत में नक्सलियों के समर्थक और उनके बौद्धिक प्रवक्ता माने जाने वाले बारबरा राव का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है और इसमें उनसे जानने का प्रयास किया है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत के नक्सल आन्दोलन पर क्या प्रभाव पडने वाला है। पूरे साक्षात्कार में बारबरा राव ने अनेक बातें की हैं परंतु जो अत्यंत मह्त्वपूर्ण बात है वह यह कि नेपाल और भारत के माओवादियों के लक्ष्य में मूलभूत अंतर है एक ओर नेपाल के माओवादियों का उद्देश्य जहाँ नेपाल में राजशाही समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना था वहीं भारत में नक्सली या माओवादी एक व्यवस्था परिवर्तन या समानांतर राजनीतिक प्रणाली का आन्दोलन चला रहे हैं। इस व्यस्था परिवर्तन के मूल में शास्त्रीय साम्यवादी सोच है कि उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा समाज का अधिकार हो। बारबरा राव का मानना है कि अभी यह देखना होगा कि नेपाल का शासन किस प्रकार चलाया जाता है। इस साक्षात्कार से एक बात स्पष्ट होती है कि नेपाल के माओवादियों के प्रति भारत के नक्सली कोई दुर्भाव नहीं रखते जैसा कि भारत में कुछ समाचार पत्रों ने नेपाल में माओवादियों की विजय के बाद समाचारों में लिखा था कि भारत स्थित माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आने से नेपाली माओवादियों से खिन्न हैं। बारबरा राव की बातचीत से स्पष्ट है कि भारत स्थित नक्सली या माओवादी नेपाल की परिस्थितियों पर नजर लगाये रखेंगे।
भारत में जिस प्रकार नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत उनको अवसर देने के नाम पर या फिर भारत में नक्सलियों को लोकतांत्रिक बनाने के नाम पर जिस प्रकार माओवादियों की विजय को स्वीकार कराया जा रहा है और उससे भी आगे बढकर भारत सरकार पर एक बौद्धिक दबाव बनाया जा रहा है कि वह माओवादियों को हाथोंहाथ ले इसके बाद भी कि माओवादी नेता प्रचण्ड अपनी विजय के उपरांत दहाड दहाड कर कह रहे हैं कि वे भारत के साथ पुरानी सभी सन्धियाँ भंग कर भारत के साथ नेपाल के सम्बन्धों की समीक्षा नये सन्दर्भ में करेंगे। इस प्रकार भारत विरोधी वातावरण के बाद भी नेपाल में माओवादियों की विजय को भारत के लिये उपयुक्त ठहराने वाले कौन लोग हैं और इसके पीछे इनका उद्देश्य क्या है?
यही वह बिन्दु है जो हमें सोचने को विवश करता है और देश में वामपंथी विचारधारा के झुकाव को स्पष्ट करता है। इसमें बात में कोई शक नहीं है कि भारत के बडे समाचार पत्रों में निर्णायक पदों पर वही लोग बैठे हैं जो शीतकालिक युद्ध की मानसिकता के हैं और उस दौर के हैं जब वामपंथी विचारधारा कालेज कैम्पस में फैशन हुआ करती थी। इस विचारधारा को पिछले 25 वर्षों में अनेक उतार चढाव देखने पडे हैं। पहले राम मन्दिर के रूप में हिन्दुत्व आन्दोलन ने फिर सामाजिक न्याय के मण्डल आन्दोलन ने समाज का ध्रुवीकरण इस आधार पर कर दिया कि वामपंथी विचारधारा हाशिये पर चली गयी। ऐसी परिस्थितियों में यही वामपंथी विचार के पत्रकार जातिवादी दलों और हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों के साथ चले गये और सेकुलरिज्म के नाम पर एक नया मोर्चा बना लिया जिसका एक साझा कार्यक्रम हिन्दुत्व विरोध था। फिर भी यह विचारधारा पूरी तरह वामपंथ पर आधारित नहीं थी।
2000 के बाद समस्त विश्व में एक नया परिवर्तन आया है और वैश्वीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया और इस्लामी आतंकवाद का उत्कर्ष एक साथ हो रहा है। एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के नाम पर सामाजिक असमानता बढ रही है तो वहीं एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था के नाम पर इस्लामवादी शक्तियाँ कुरान और शरियत पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। वैश्वीकरण से उपजे सामाजिक असंतुलन के चलते समाज में आन्दोलन के लिये जो वातावरण पनप रहा है उसका कुछ हद तक उपयोग भारत में नक्सली कर रहे हैं। इस प्रकार नक्सलियों के आन्दोलन का सूत्र भी वर्तमान विश्व व्यवस्था का विरोध है और इस्लामवादी पुनरुत्थान आन्दोलन का लक्ष्य भी कुरान आधारित विश्व की स्थापना है। भारत में दोनों ही शक्तियाँ अर्थात नक्सली और इस्लामवादी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक और अपना शत्रु मानती हैं।
यह निष्कर्ष मैंने अपने अनुभव के आधार पर निकाला है। आज से कोई दो वर्ष पूर्व मुझे नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ जाने का अवसर मिला और उन हिस्सों में भी जाने का अवसर मिला जो नक्सल प्रभावित या नक्सल प्रभाव वाले हैं। अपनी यात्रा के दौरान नक्सलियों के पूरे कार्य व्यवहार को जानने का अवसर मिला। नक्सलवादी एक समानांतर व्यवस्था पर काम कर रहे हैं। छ्त्तीसगढ जैसे क्षेत्र में जो भौगोलिक दृष्टि से काफी बिखरा है और कुछ गाँवों में तो केवल एक तो घर ही हैं और पिछ्डापन इस कदर है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासी देश क्या होता है यह तक नहीं जानते। ऐसे पिछ्डे क्षेत्रों में शिक्षा का बहुत बडा अभियान संघ परिवार के एकल विद्यालय चला रहे हैं जहाँ दूर दराज के घरों में भी आपको भारतमाता के कैलेण्डर मिल जायेंगे। खैर इसके बाद भी नक्सलवादियों का प्रभाव इन क्षेत्रों में बहुत अधिक है और उनके अपने विद्यालय हैं जहाँ वे जनजातिय लोगों के बच्चों को अपने पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षा देते हैं और बच्चों के अभिभावकों को धन भी देते हैं। इन पाठ्यक्रमों के अंतर्गत साम्राज्यवाद और हिन्दुत्व को सहयोगी सिद्ध करते हुए दोनों को समान रूप से शत्रु बताया जाता है। यही नहीं तो नक्सलियों की एक पत्रिका मुक्तिमार्ग भी इस क्षेत्र से निकलती है जिसमें भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये जाते हैं। इस अनुभव को पाठकों से बाँटना इसलिये आवश्यक था कि इन चीजों को देखकर दो वर्ष पूर्व जो विचार मेरे मन में आया था और जिसके बारे में उस समय भी मैने लिखा था वह यह कि नक्सलियों का यह भाव एक बडे संकट को जन्म दे सकता है और वह यह कि भारत में और विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के समान उद्देश्य होने के कारण किसी स्तर पर आकर वे एक दूसरे के सहयोगी बन सकते है।
नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत जिस प्रकार की प्रतिक्रिया भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के मध्य हुई है उससे एक आशंका को बल मिलता है कि वामपंथ के थके सिपाही एक बार फिर विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद को और भारत में हिन्दुत्व को निशाना बना कर इस्लामवादियों के साथ आ सकते हैं।
वैसे वामपंथियों का मुस्लिम साम्प्रदायिकता का सहयोग देने का पुराना इतिहास रहा है और भारत के विभाजन के लिये मुस्लिम लीग को वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करने का कार्य वामपंथियों ने ही किया था। भारत में पिछ्ले 25-30 वर्षों से हाशिये पर आ गये वामपंथियों को सुनहरा अवसर 2004 में मिला जब वे केन्द्र में सत्तासीन दल के प्रमुख घटक बने और विदेश नीति सहित अनेक मुद्दों पर वीटो लगाने में सफल रहे। वामपंथियों ने नेपाल में माओवादियों को नेपाल की सत्ता तक लाने में भारत की ओर से मध्यस्थता की और राजतंत्र समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। कुछ वर्षों पहले भारत के दक्षिणी राज्य केरल में हुए विधानसभा चुनावों में वामपंथियों ने विदेश नीति को मुद्दा बनाकर चुनाव लडा और आई ए ई ए में भारत द्वारा ईरान के विरुद्ध किये गये मतदान को मुस्लिम वोट से जोडा और फिलीस्तीन के आतंकवादी नेता और अनेकों इजरायलियों की हत्या कराने वाले इंतिफादा के उत्तरदायी यासिर अराफात का चित्र लगाकर वोट की पैरवी की। इसी प्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के दौरान मुम्बई और दिल्ली में इस्लामवादियों के साथ मिलकर बडी सभायें कीं और अमेरिका के राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त सत्र सम्बोधित करने से रोक दिया। डेनमार्क में पैगम्बर मोहम्मद का आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित होने पर यही वामपंथी इस्लामवादियों के साथ सड्कों पर उतरे और केरल में इन्हीं वामपंथियों की सरकार ने कोयम्बटूर बम काण्ड के आरोपी कुख्यात आतंकवादी अब्दुल मदनी को जेल से रिहा करने के लिये विधानसभा का विशेष सत्र आहूत किया। ऐसा काम संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब विधानसभा के विशेष सत्र द्वारा किसी आतंकवादी को छोड्ने का प्रस्ताव पारित किया जाये।
अब जबकि नेपाल की संविधान सभा में विजय के उपरांत माओवादियों के नेता प्रचण्ड ने अपना प्रचण्ड रूप दिखाना आरम्भ कर दिया है और उनका भारत विरोधी एजेण्डा सामने आ रहा है तो स्पष्ट है कि नेपाल में चीन और पाकिस्तान की जुगलबन्दी गुल खिलाने वाली है और इसकी तरफ उन लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जा रहा है जो भारत सरकार को सीख दे रहे है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से भारत में नक्सलवादियों को भी लोकतांत्रिक बनाने में सहायता मिलेगी। इस तर्क से सावधान रहने की आवश्यकता है कहीं इस चिंतन के पीछे माओवादियों के सहारे मृतप्राय पडे वामपंथ को जीवित करने का स्वार्थ तो निहित नहीं है। वैसे भी विश्व स्तर पर आज वामपंथी इस्लामवादियों को अपना सहयोगी बनाने में नहीं हिचकते और अमेरिका, इजरायल सहित अनेक विषयों पर उनके सुर में बात करने में तनिक भी परहेज नहीं करते। नेपाल में माओवादियों की विजय को दक्षिण एशिया में इस्लामवादी-वामपंथी गठजोड की दिशा में एक मह्त्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिये। आने वाले दिनों में यह गठज़ोड और अधिक मुखर और मजबूत स्वरूप लेगा।
हमारे लेख का विषय यह है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत की सुरक्षा पर दीर्घगामी स्तर पर क्या प्रभाव पडने वाला है। अभी हाल के अपने अंक में प्रसिद्ध पत्रिका तहलका ने भारत में नक्सलियों के समर्थक और उनके बौद्धिक प्रवक्ता माने जाने वाले बारबरा राव का एक साक्षात्कार प्रकाशित किया है और इसमें उनसे जानने का प्रयास किया है कि नेपाल में माओवादियों की विजय का भारत के नक्सल आन्दोलन पर क्या प्रभाव पडने वाला है। पूरे साक्षात्कार में बारबरा राव ने अनेक बातें की हैं परंतु जो अत्यंत मह्त्वपूर्ण बात है वह यह कि नेपाल और भारत के माओवादियों के लक्ष्य में मूलभूत अंतर है एक ओर नेपाल के माओवादियों का उद्देश्य जहाँ नेपाल में राजशाही समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना था वहीं भारत में नक्सली या माओवादी एक व्यवस्था परिवर्तन या समानांतर राजनीतिक प्रणाली का आन्दोलन चला रहे हैं। इस व्यस्था परिवर्तन के मूल में शास्त्रीय साम्यवादी सोच है कि उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा समाज का अधिकार हो। बारबरा राव का मानना है कि अभी यह देखना होगा कि नेपाल का शासन किस प्रकार चलाया जाता है। इस साक्षात्कार से एक बात स्पष्ट होती है कि नेपाल के माओवादियों के प्रति भारत के नक्सली कोई दुर्भाव नहीं रखते जैसा कि भारत में कुछ समाचार पत्रों ने नेपाल में माओवादियों की विजय के बाद समाचारों में लिखा था कि भारत स्थित माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आने से नेपाली माओवादियों से खिन्न हैं। बारबरा राव की बातचीत से स्पष्ट है कि भारत स्थित नक्सली या माओवादी नेपाल की परिस्थितियों पर नजर लगाये रखेंगे।
भारत में जिस प्रकार नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत उनको अवसर देने के नाम पर या फिर भारत में नक्सलियों को लोकतांत्रिक बनाने के नाम पर जिस प्रकार माओवादियों की विजय को स्वीकार कराया जा रहा है और उससे भी आगे बढकर भारत सरकार पर एक बौद्धिक दबाव बनाया जा रहा है कि वह माओवादियों को हाथोंहाथ ले इसके बाद भी कि माओवादी नेता प्रचण्ड अपनी विजय के उपरांत दहाड दहाड कर कह रहे हैं कि वे भारत के साथ पुरानी सभी सन्धियाँ भंग कर भारत के साथ नेपाल के सम्बन्धों की समीक्षा नये सन्दर्भ में करेंगे। इस प्रकार भारत विरोधी वातावरण के बाद भी नेपाल में माओवादियों की विजय को भारत के लिये उपयुक्त ठहराने वाले कौन लोग हैं और इसके पीछे इनका उद्देश्य क्या है?
यही वह बिन्दु है जो हमें सोचने को विवश करता है और देश में वामपंथी विचारधारा के झुकाव को स्पष्ट करता है। इसमें बात में कोई शक नहीं है कि भारत के बडे समाचार पत्रों में निर्णायक पदों पर वही लोग बैठे हैं जो शीतकालिक युद्ध की मानसिकता के हैं और उस दौर के हैं जब वामपंथी विचारधारा कालेज कैम्पस में फैशन हुआ करती थी। इस विचारधारा को पिछले 25 वर्षों में अनेक उतार चढाव देखने पडे हैं। पहले राम मन्दिर के रूप में हिन्दुत्व आन्दोलन ने फिर सामाजिक न्याय के मण्डल आन्दोलन ने समाज का ध्रुवीकरण इस आधार पर कर दिया कि वामपंथी विचारधारा हाशिये पर चली गयी। ऐसी परिस्थितियों में यही वामपंथी विचार के पत्रकार जातिवादी दलों और हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों के साथ चले गये और सेकुलरिज्म के नाम पर एक नया मोर्चा बना लिया जिसका एक साझा कार्यक्रम हिन्दुत्व विरोध था। फिर भी यह विचारधारा पूरी तरह वामपंथ पर आधारित नहीं थी।
2000 के बाद समस्त विश्व में एक नया परिवर्तन आया है और वैश्वीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया और इस्लामी आतंकवाद का उत्कर्ष एक साथ हो रहा है। एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के नाम पर सामाजिक असमानता बढ रही है तो वहीं एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था के नाम पर इस्लामवादी शक्तियाँ कुरान और शरियत पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। वैश्वीकरण से उपजे सामाजिक असंतुलन के चलते समाज में आन्दोलन के लिये जो वातावरण पनप रहा है उसका कुछ हद तक उपयोग भारत में नक्सली कर रहे हैं। इस प्रकार नक्सलियों के आन्दोलन का सूत्र भी वर्तमान विश्व व्यवस्था का विरोध है और इस्लामवादी पुनरुत्थान आन्दोलन का लक्ष्य भी कुरान आधारित विश्व की स्थापना है। भारत में दोनों ही शक्तियाँ अर्थात नक्सली और इस्लामवादी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक और अपना शत्रु मानती हैं।
यह निष्कर्ष मैंने अपने अनुभव के आधार पर निकाला है। आज से कोई दो वर्ष पूर्व मुझे नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ जाने का अवसर मिला और उन हिस्सों में भी जाने का अवसर मिला जो नक्सल प्रभावित या नक्सल प्रभाव वाले हैं। अपनी यात्रा के दौरान नक्सलियों के पूरे कार्य व्यवहार को जानने का अवसर मिला। नक्सलवादी एक समानांतर व्यवस्था पर काम कर रहे हैं। छ्त्तीसगढ जैसे क्षेत्र में जो भौगोलिक दृष्टि से काफी बिखरा है और कुछ गाँवों में तो केवल एक तो घर ही हैं और पिछ्डापन इस कदर है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासी देश क्या होता है यह तक नहीं जानते। ऐसे पिछ्डे क्षेत्रों में शिक्षा का बहुत बडा अभियान संघ परिवार के एकल विद्यालय चला रहे हैं जहाँ दूर दराज के घरों में भी आपको भारतमाता के कैलेण्डर मिल जायेंगे। खैर इसके बाद भी नक्सलवादियों का प्रभाव इन क्षेत्रों में बहुत अधिक है और उनके अपने विद्यालय हैं जहाँ वे जनजातिय लोगों के बच्चों को अपने पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षा देते हैं और बच्चों के अभिभावकों को धन भी देते हैं। इन पाठ्यक्रमों के अंतर्गत साम्राज्यवाद और हिन्दुत्व को सहयोगी सिद्ध करते हुए दोनों को समान रूप से शत्रु बताया जाता है। यही नहीं तो नक्सलियों की एक पत्रिका मुक्तिमार्ग भी इस क्षेत्र से निकलती है जिसमें भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये जाते हैं। इस अनुभव को पाठकों से बाँटना इसलिये आवश्यक था कि इन चीजों को देखकर दो वर्ष पूर्व जो विचार मेरे मन में आया था और जिसके बारे में उस समय भी मैने लिखा था वह यह कि नक्सलियों का यह भाव एक बडे संकट को जन्म दे सकता है और वह यह कि भारत में और विश्व स्तर पर वामपंथ और इस्लामवाद के समान उद्देश्य होने के कारण किसी स्तर पर आकर वे एक दूसरे के सहयोगी बन सकते है।
नेपाल में माओवादियों की विजय के उपरांत जिस प्रकार की प्रतिक्रिया भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के मध्य हुई है उससे एक आशंका को बल मिलता है कि वामपंथ के थके सिपाही एक बार फिर विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद को और भारत में हिन्दुत्व को निशाना बना कर इस्लामवादियों के साथ आ सकते हैं।
वैसे वामपंथियों का मुस्लिम साम्प्रदायिकता का सहयोग देने का पुराना इतिहास रहा है और भारत के विभाजन के लिये मुस्लिम लीग को वैचारिक अधिष्ठान प्रदान करने का कार्य वामपंथियों ने ही किया था। भारत में पिछ्ले 25-30 वर्षों से हाशिये पर आ गये वामपंथियों को सुनहरा अवसर 2004 में मिला जब वे केन्द्र में सत्तासीन दल के प्रमुख घटक बने और विदेश नीति सहित अनेक मुद्दों पर वीटो लगाने में सफल रहे। वामपंथियों ने नेपाल में माओवादियों को नेपाल की सत्ता तक लाने में भारत की ओर से मध्यस्थता की और राजतंत्र समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया। कुछ वर्षों पहले भारत के दक्षिणी राज्य केरल में हुए विधानसभा चुनावों में वामपंथियों ने विदेश नीति को मुद्दा बनाकर चुनाव लडा और आई ए ई ए में भारत द्वारा ईरान के विरुद्ध किये गये मतदान को मुस्लिम वोट से जोडा और फिलीस्तीन के आतंकवादी नेता और अनेकों इजरायलियों की हत्या कराने वाले इंतिफादा के उत्तरदायी यासिर अराफात का चित्र लगाकर वोट की पैरवी की। इसी प्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के दौरान मुम्बई और दिल्ली में इस्लामवादियों के साथ मिलकर बडी सभायें कीं और अमेरिका के राष्ट्रपति को संसद का संयुक्त सत्र सम्बोधित करने से रोक दिया। डेनमार्क में पैगम्बर मोहम्मद का आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित होने पर यही वामपंथी इस्लामवादियों के साथ सड्कों पर उतरे और केरल में इन्हीं वामपंथियों की सरकार ने कोयम्बटूर बम काण्ड के आरोपी कुख्यात आतंकवादी अब्दुल मदनी को जेल से रिहा करने के लिये विधानसभा का विशेष सत्र आहूत किया। ऐसा काम संसदीय इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब विधानसभा के विशेष सत्र द्वारा किसी आतंकवादी को छोड्ने का प्रस्ताव पारित किया जाये।
अब जबकि नेपाल की संविधान सभा में विजय के उपरांत माओवादियों के नेता प्रचण्ड ने अपना प्रचण्ड रूप दिखाना आरम्भ कर दिया है और उनका भारत विरोधी एजेण्डा सामने आ रहा है तो स्पष्ट है कि नेपाल में चीन और पाकिस्तान की जुगलबन्दी गुल खिलाने वाली है और इसकी तरफ उन लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं जा रहा है जो भारत सरकार को सीख दे रहे है कि नेपाल में माओवादियों की विजय से भारत में नक्सलवादियों को भी लोकतांत्रिक बनाने में सहायता मिलेगी। इस तर्क से सावधान रहने की आवश्यकता है कहीं इस चिंतन के पीछे माओवादियों के सहारे मृतप्राय पडे वामपंथ को जीवित करने का स्वार्थ तो निहित नहीं है। वैसे भी विश्व स्तर पर आज वामपंथी इस्लामवादियों को अपना सहयोगी बनाने में नहीं हिचकते और अमेरिका, इजरायल सहित अनेक विषयों पर उनके सुर में बात करने में तनिक भी परहेज नहीं करते। नेपाल में माओवादियों की विजय को दक्षिण एशिया में इस्लामवादी-वामपंथी गठजोड की दिशा में एक मह्त्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिये। आने वाले दिनों में यह गठज़ोड और अधिक मुखर और मजबूत स्वरूप लेगा।
Saturday, July 5, 2008
'शैतानी' गतिविधियों का केन्द्र बनती यह 'लाल मस्जिदें'
इस्लाम धर्म में मस्जिद नामक धर्मस्थल को आराधना के सबसे बड़े केन्द्र के रूप में मान्यता प्राप्त है। मस्जिद का शाब्दिक अर्थ होता है वह स्थान जहाँ अल्लाह को सजदा किया जाए। चूंकि इस्लाम धर्म में अल्लाह या निराकार ईश्वर के अतिरिक्त किसी के समक्ष सजदा करने की इजाजत नहीं है इसलिए मस्जिद को बैतुल्लाह के नाम से भी जाना जाता है। बैतुल्लाह अर्थात् खुदा का घर। परन्तु पिछले दिनों पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद की लाल मस्जिद में जो घटनाक्रम देखने को मिला उसे देखकर यह संदेह पैदा होने लगा है कि वास्तव में कट्टरपंथी सोच रखने वाले मुसलमानों ने कहीं मस्जिद जैसे पवित्र आराधना स्थल को भी 'बैत-उल-अल्लाह' के बजाए 'बैत-उल-शैतान' यानी शैतान का घर तो बनाकर नहीं रख दिया? इस्लामाबाद के अत्यन्त सभ्रान्त इलाके में स्थित इस अति विवादित एवं संदेहपूर्ण लाल मस्जिद के विषय में बताया जाता है कि इसका निर्माण सरकारी ज़मीनों पर अवैध कब्जा कर किया गया था। पाकिस्तान के उच्च श्रेणी के नेताओं, उच्चाधिकारियों तथा पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी आई एस आई के शीर्ष अधिकारियों के आवागमन का भी यह मस्जिद एक प्रमुख केन्द्र रही है। आश्चर्य की बात है कि आई एस आई का मुख्यालय भी लाल मस्जिद के बिल्कुल निकट ही स्थित है। इस मस्जिद के प्रमुख मौलवी अब्दुल अजीज तथा मौलवी अब्दुल रशीद पाकिस्तान के दक्षिण प्रांत के रहने वाले थे। इन भाइयों से पहले इनके पिता मौलाना अब्दुल्लाह इसी मस्जिद के प्रमुख मौलवी थे। कुछ वर्ष पूर्व मौलाना अब्दुल्लाह की भी इसी लाल मस्जिद परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने वाली इस मस्जिद में लड़कों व लड़कियों के अलग-अलग मदरसे तथा उनके छात्रावास भी स्थित थे। इस मस्जिद के प्रमुख मौलाना अब्दुल अंजींज तथा मौलवी अब्दुल रशीद गाजी गत् कई वर्षों से पाकिस्तान में इस्लामी शरिआ कानून लागू किए जाने की मांग कर रहे थे। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तान में इस्लामी शरिआ कानून लागू किए जाने की माँग के पीछे तालिबानी विचारधारा रखने वाले संगठनों तथा अन्य कई कट्टरपंथी संगठनों के साथ-साथ अलंकायदा, जैश-ए-मोहम्मद तथा लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों की भी अहम भूमिका थी।
अमेरिका में 11 सितम्बर को हुए आतंकवादी हमले के बाद लाल मस्जिद इस्लामी गतिविधियों के बजाए आतंकवादी गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र बनता जा रहा था। यहाँ पाकिस्तान के कई कट्टरपंथी संगठन न सिर्फ अमेरिका विरोधी रणनीतियाँ तैयार करते थे बल्कि पाकिस्तानी अवाम को इस्लाम के नाम पर एकजुट करने तथा पूरे पाकिस्तान को तालिबानी विचारधारा की राह पर ले जाने के लिए भी प्रयासरत थे। पाकिस्तान में शरिआ कानून लागू किए जाने की माँग उसी सिलसिले की एक कड़ी थी। पिछले कुछ समय से इस तथाकथित मस्जिद की हालत ऐसी हो गई थी कि गोया यह अल्लाह की इबादत अथवा इस्लामी शिक्षा का केंद्र नहीं बल्कि आतंकवादियों की शरण स्थली बन गई थी। इस मदरसे के तमाम छात्र पिस्तौल, राईंफलों तथा प्रतिबंधित ए के 56 व ए के 47 जैसे शस्त्रों से लैस तथा अपने मुँह पर मास्क लगाए पूर्णतय: संदिग्ध अवस्था में घूमते फिरते दिखाई देने लगे थे। छात्रों के भेष में रहने वाले आतंकवादियों ने अपनी आतंकपूर्ण गतिविधियों को पाकिस्तान की सड़कों पर भी उतार दिया था। यह संदिग्ध लोग कारों के कांफिलों के साथ इस्लामाबाद की सड़कों पर सशस्त्र घूमते व दहशत फैलाते थे तथा जब जिसका चाहते अपहरण भी कर लिया करते थे। कुल मिलाकर इन दहशतगर्द तथाकथित इस्लामी झंडाबरदारों ने पाकिस्तान की मुशर्रफ सरकार के समक्ष कड़ी चुनौती पेश करनी शुरु कर दी थी। यहाँ तक कि मस्जिद की ओर से पाकिस्तान में आत्मघाती हमले कराए जाने की बातें भी की जाने लगी थीं। मस्जिद के प्रमुख दोनों भाई पाक प्रशासन को आए दिन यह चेतावनी देते रहते थे कि उनके पास आत्मघाती दस्ते हैं तथा वे जरूरत पड़ने पर कहीं भी आत्मघाती हमले कर सकते हैं।
बहरहाल जब लाल मस्जिद की आतंकपूर्ण गतिविधियों का पैमाना लबरेंज हो गया तो अन्ततोगत्वा मुशर्रंफ सरकार को लाल मस्जिद में छात्रों के भेष में छिपे बैठे आतंकवादियों के विरुद्ध सशस्त्र कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से इस दु:खद घटनाक्रम में सैकड़ों लोग मारे गए। परन्तु इस कार्रवाई का सबसे रोचक पहलू यह रहा कि इस्लाम के नाम पर मासूम व बेगुनाह लोगों को आत्मघाती हमलों हेतु मानव बम के रूप में 'शहीद' होने की प्रेरणा देने वाला मस्जिद का प्रमुख मौलवी अब्दुल अजीज पाकिस्तानी रेंजर्स की कार्रवाई का सामना करने के बजाए अपने सहयोगियों व मदरसे के छात्रों को मस्जिद में ही छोड़कर महिलाओं के झुण्ड में महिला के भेष में बुर्का (नकाब) ओढ़कर छुपकर भागता हुआ गिरफ्तार किया गया जबकि उसका दूसरा भाई अब्दुल रशीद गाजी मस्जिद से निकल भागने का सुरक्षित रास्ता न मिल पाने के कारण सैन्य कार्रवाई में मारा गया। इस समूचे घटनाक्रम में तथा लाल मस्जिद से जुड़ी पिछले एक दशक की गतिविधियों में जो कुछ देखने को मिल रहा है उससे इस्लामी शिक्षा का आंखिर क्या वास्ता हो सकता है?
क्या इस्लामी तालीम यही सिखाती है कि सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्जा कर मस्जिद का निर्माण किया जाए? अल्लाह के घर तथा मस्जिद को हथियारों के भण्डारण का केंद्र बना दिया जाए? बेगुनाह लोगों की हत्याएं करने वाले पेशेवर आतंकवादियों की शरण स्थली के रूप में मस्जिद या मदरसे का इस्तेमाल किया जाए? मदरसे के तथाकथित छात्रों द्वारा निहत्थे व बेकुसूर लोगों का अपहरण किया जाए? मस्जिद परिसर में बैठकर अल्लाह को सजदा करने, उसकी इबादत करने के बजाए इस पवित्र आराधना स्थल का प्रयोग सियासत करने, साजिश रचने तथा विद्रोही रणनीतियाँ तैयार करने हेतु किया जाए? और यदि यह मान भी लिया जाए कि यह सब कुछ तथाकथित मौलवी बन्धुओं द्वारा केवल इसलिए किया जा रहा था कि वे पाकिस्तान में इस्लामी शरीआ कानून लागू कराना चाहते थे तो क्या अपनी माँग मनवाने का उनके पास यही एक तरीका बाकी रह गया था? और लाल मस्जिद आखिर पाकिस्तान में कौन से इस्लामी शरीआ कानून को लागू करने की बात कर रही थी? क्या तालिबानी नीतियाँ ही वास्तविक इस्लामी शरिआ कानून हैं? क्या कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा को ही इस्लामी शरीआ कहा जाना चाहिए?
पाकिस्तान की लाल मस्जिद में हुए 'आप्रेशन साइलेंस' ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि इस्लाम के नाम पर होने वाली कट्टरपंथी व आतंकवादी गतिविधियां तथा इसे संचालित करने वाले लोग दरअसल स्वयं न सिंर्फ इस्लाम विरोधी हैं बल्कि यह अल्लाह, इन्सानियत व दुनिया के शांतिप्रिय उदारवादी मुसलमानों के भी सबसे बड़े दुश्मन हैं। यदि ऐसा न होता तो न तो अलंकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन जैसे इस्लामी ठेकेदार गुफाओं में छुपते फिर रहे होते न ही अब्दुल अजीज को बुर्का ओढ़कर मुँह छिपा कर भागने के लिए औरतों के झुण्ड का सहारा लेना पड़ता। दरअसल आज इस्लाम पर तो स्वयं यंजीदी शक्तियाँ ही नियंत्रण हासिल करना चाह रही हैं जिन्हें लुक छुपकर रहने व मासूमों व बेगुनाहों पर छुपकर वार करने में अधिक विश्वास रहता है। जनरल मुशर्रंफ में लाख कमियाँ सही तथा ऑप्रेशन साइलेंस के भले ही तमाम अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ क्यों न लगाए जा रहे हों परन्तु मुशर्रफ ने लाल मस्जिद पर देर से ही क्यों न सही परन्तु यहाँ से आतंकवादियों की सफाई कर निश्चित रूप से एक अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। जरूरत इस बात की है कि सिर्फ इस्लामाबाद की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कहीं भी 'लाल मस्जिद' रूपी आराधना स्थल आतंकवादी गतिविधियों के केन्द्र के रूप में संचालित किए जा रहे हों, उन सभी नेटवर्क को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए। इन स्वयंभू इस्लामी झण्डाबरदारों को क्षमा भी नहीं करना चाहिए क्योंकि आज इस्लाम को आतंकवाद के पर्याय के रूप में देखे जाने में इन्हीं कट्टरपंथी रूढ़िवादियों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है लिहाजा इन्हें इनके कारनामों की सजा जरूर दी जानी चाहिए।
अमेरिका में 11 सितम्बर को हुए आतंकवादी हमले के बाद लाल मस्जिद इस्लामी गतिविधियों के बजाए आतंकवादी गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र बनता जा रहा था। यहाँ पाकिस्तान के कई कट्टरपंथी संगठन न सिर्फ अमेरिका विरोधी रणनीतियाँ तैयार करते थे बल्कि पाकिस्तानी अवाम को इस्लाम के नाम पर एकजुट करने तथा पूरे पाकिस्तान को तालिबानी विचारधारा की राह पर ले जाने के लिए भी प्रयासरत थे। पाकिस्तान में शरिआ कानून लागू किए जाने की माँग उसी सिलसिले की एक कड़ी थी। पिछले कुछ समय से इस तथाकथित मस्जिद की हालत ऐसी हो गई थी कि गोया यह अल्लाह की इबादत अथवा इस्लामी शिक्षा का केंद्र नहीं बल्कि आतंकवादियों की शरण स्थली बन गई थी। इस मदरसे के तमाम छात्र पिस्तौल, राईंफलों तथा प्रतिबंधित ए के 56 व ए के 47 जैसे शस्त्रों से लैस तथा अपने मुँह पर मास्क लगाए पूर्णतय: संदिग्ध अवस्था में घूमते फिरते दिखाई देने लगे थे। छात्रों के भेष में रहने वाले आतंकवादियों ने अपनी आतंकपूर्ण गतिविधियों को पाकिस्तान की सड़कों पर भी उतार दिया था। यह संदिग्ध लोग कारों के कांफिलों के साथ इस्लामाबाद की सड़कों पर सशस्त्र घूमते व दहशत फैलाते थे तथा जब जिसका चाहते अपहरण भी कर लिया करते थे। कुल मिलाकर इन दहशतगर्द तथाकथित इस्लामी झंडाबरदारों ने पाकिस्तान की मुशर्रफ सरकार के समक्ष कड़ी चुनौती पेश करनी शुरु कर दी थी। यहाँ तक कि मस्जिद की ओर से पाकिस्तान में आत्मघाती हमले कराए जाने की बातें भी की जाने लगी थीं। मस्जिद के प्रमुख दोनों भाई पाक प्रशासन को आए दिन यह चेतावनी देते रहते थे कि उनके पास आत्मघाती दस्ते हैं तथा वे जरूरत पड़ने पर कहीं भी आत्मघाती हमले कर सकते हैं।
बहरहाल जब लाल मस्जिद की आतंकपूर्ण गतिविधियों का पैमाना लबरेंज हो गया तो अन्ततोगत्वा मुशर्रंफ सरकार को लाल मस्जिद में छात्रों के भेष में छिपे बैठे आतंकवादियों के विरुद्ध सशस्त्र कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से इस दु:खद घटनाक्रम में सैकड़ों लोग मारे गए। परन्तु इस कार्रवाई का सबसे रोचक पहलू यह रहा कि इस्लाम के नाम पर मासूम व बेगुनाह लोगों को आत्मघाती हमलों हेतु मानव बम के रूप में 'शहीद' होने की प्रेरणा देने वाला मस्जिद का प्रमुख मौलवी अब्दुल अजीज पाकिस्तानी रेंजर्स की कार्रवाई का सामना करने के बजाए अपने सहयोगियों व मदरसे के छात्रों को मस्जिद में ही छोड़कर महिलाओं के झुण्ड में महिला के भेष में बुर्का (नकाब) ओढ़कर छुपकर भागता हुआ गिरफ्तार किया गया जबकि उसका दूसरा भाई अब्दुल रशीद गाजी मस्जिद से निकल भागने का सुरक्षित रास्ता न मिल पाने के कारण सैन्य कार्रवाई में मारा गया। इस समूचे घटनाक्रम में तथा लाल मस्जिद से जुड़ी पिछले एक दशक की गतिविधियों में जो कुछ देखने को मिल रहा है उससे इस्लामी शिक्षा का आंखिर क्या वास्ता हो सकता है?
क्या इस्लामी तालीम यही सिखाती है कि सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्जा कर मस्जिद का निर्माण किया जाए? अल्लाह के घर तथा मस्जिद को हथियारों के भण्डारण का केंद्र बना दिया जाए? बेगुनाह लोगों की हत्याएं करने वाले पेशेवर आतंकवादियों की शरण स्थली के रूप में मस्जिद या मदरसे का इस्तेमाल किया जाए? मदरसे के तथाकथित छात्रों द्वारा निहत्थे व बेकुसूर लोगों का अपहरण किया जाए? मस्जिद परिसर में बैठकर अल्लाह को सजदा करने, उसकी इबादत करने के बजाए इस पवित्र आराधना स्थल का प्रयोग सियासत करने, साजिश रचने तथा विद्रोही रणनीतियाँ तैयार करने हेतु किया जाए? और यदि यह मान भी लिया जाए कि यह सब कुछ तथाकथित मौलवी बन्धुओं द्वारा केवल इसलिए किया जा रहा था कि वे पाकिस्तान में इस्लामी शरीआ कानून लागू कराना चाहते थे तो क्या अपनी माँग मनवाने का उनके पास यही एक तरीका बाकी रह गया था? और लाल मस्जिद आखिर पाकिस्तान में कौन से इस्लामी शरीआ कानून को लागू करने की बात कर रही थी? क्या तालिबानी नीतियाँ ही वास्तविक इस्लामी शरिआ कानून हैं? क्या कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा को ही इस्लामी शरीआ कहा जाना चाहिए?
पाकिस्तान की लाल मस्जिद में हुए 'आप्रेशन साइलेंस' ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि इस्लाम के नाम पर होने वाली कट्टरपंथी व आतंकवादी गतिविधियां तथा इसे संचालित करने वाले लोग दरअसल स्वयं न सिंर्फ इस्लाम विरोधी हैं बल्कि यह अल्लाह, इन्सानियत व दुनिया के शांतिप्रिय उदारवादी मुसलमानों के भी सबसे बड़े दुश्मन हैं। यदि ऐसा न होता तो न तो अलंकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन जैसे इस्लामी ठेकेदार गुफाओं में छुपते फिर रहे होते न ही अब्दुल अजीज को बुर्का ओढ़कर मुँह छिपा कर भागने के लिए औरतों के झुण्ड का सहारा लेना पड़ता। दरअसल आज इस्लाम पर तो स्वयं यंजीदी शक्तियाँ ही नियंत्रण हासिल करना चाह रही हैं जिन्हें लुक छुपकर रहने व मासूमों व बेगुनाहों पर छुपकर वार करने में अधिक विश्वास रहता है। जनरल मुशर्रंफ में लाख कमियाँ सही तथा ऑप्रेशन साइलेंस के भले ही तमाम अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ क्यों न लगाए जा रहे हों परन्तु मुशर्रफ ने लाल मस्जिद पर देर से ही क्यों न सही परन्तु यहाँ से आतंकवादियों की सफाई कर निश्चित रूप से एक अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। जरूरत इस बात की है कि सिर्फ इस्लामाबाद की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कहीं भी 'लाल मस्जिद' रूपी आराधना स्थल आतंकवादी गतिविधियों के केन्द्र के रूप में संचालित किए जा रहे हों, उन सभी नेटवर्क को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए। इन स्वयंभू इस्लामी झण्डाबरदारों को क्षमा भी नहीं करना चाहिए क्योंकि आज इस्लाम को आतंकवाद के पर्याय के रूप में देखे जाने में इन्हीं कट्टरपंथी रूढ़िवादियों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है लिहाजा इन्हें इनके कारनामों की सजा जरूर दी जानी चाहिए।
Monday, June 23, 2008
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